छुपमछुपाई

रविवार, 31 जुलाई 2011

वेदना

चाहे राग दो न दो मधु पराग दो न दो ,आँखों से आंसुओ कि गागरी न छीनना
चाहे आस छीन लो चाहे साँस छीन लो ,सांसो से गीतों कि बांसुरी न छीनना
मन भटक रहा है धूप चांदनी के गांव में ,जिस गली गये हज़ार शूल चुभे पाँव में
जब न दर्द कम हुआ जब न दूर गम हुआ, बैठ गये प्यार भरे बादलों कि छाओं में
चाहे सूर्य छीन लो चाहे चंद्र छीन लो ,नेत्रों से नीर भरी बादरी न छीनना
चाहे राग दो न दो मधु पराग दो न दो ,आँखों से आंसुओ कि गागरी न छीनना

स्वर न दो गुलाब के न छंद हर सिंगार के ,स्वर न दो बहार के न स्वर मिलन मल्हार के
बिरहा के राग हो या वेदना विहाग हो , मेरे ह्रदय से सावरी की यादेँ न छीनना
चाहे राग दो न दो मधु पराग दो न दो ,आँखों से आंसुओ कि गागरी न छीनना

फूल से बिखर गये सितारे रात आ गयी ,चंद्र कि दुल्हन के द्वार पर बरात आ गई
नील गगन देख कर चंद्र किरण देख कर ,याद जैसे मन को कोई भूली बात आ गई
दीप दामनी न दो धूप चांदनी न दो ,किन्तु याद् से भरी विभावरी न छीनना
चाहे राग दो न दो मधु पराग दो न दो ,आँखों से आंसुओ कि गागरी न छीनना..../

1 टिप्पणी:

मेरी रचना पर विचार व्यक्त करने के लिय आप को अग्रिम धन्यवाद..